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ANUBHAV

अध्यात्म सिखाता है जीवन जीने की कला 

इस संसार में मानव जीवन से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई उपलब्धि नही मानी गई है। एकमात्र मानव जीवन ही वह अवसर है जिसमें मनुष्य जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। इसका सदुपयोग उसके कल्पवृक्ष की भांति फलीभूत हो रहा है। जो मनुष्य इस सुरदुर्लभ मानव जीवन को पाकर उसे सुचारु रूप से संचालित करने की कला नही जानता अथवा उसे जानने का प्रमाद करता है तो उसका बड़ा दुर्भाग्य ही होता है। मानव जीवन वह पवित्र क्षेत्र है, जिसमें परमात्मा ने सारी विभूतियां बीज रूप में रख दी है जिनका विकास नर को नारायण बना देता है। किंतु इन विभूतियों का विकास तभी होता है, जब जीवन का व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाय। अन्यथा अव्यवस्थित के आधार पर दरिद्रता की वृद्धि कर देता है।
जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए एकमात्र वैज्ञानिक पद्धति अध्यात्म है, जिसे जीवन जीने की कला भी कहा जाता है। इस सर्वश्रेष्ठ कला को जाने बिना जो मनुष्य अस्त-व्यस्त ढंग से बिताता रहता है, उसे कोई भी ऐश्वर्य उपलब्ध नही हो सकता, जो लोक से लेकर परलोक तक फैले है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जिनके अंतर्गत आदि से लेकर अंत तक सारी सफलताएँ सन्निहित है, इसी जीवन कला के आधार पर ही तो मिलते हैं। सामान्य लोग मानते हैं कि अध्यात्मवाद का लौकिक जीवन से कोई संबंध नही, वह साधु-संतों का क्षेत्र है, जो जीवन में दैवीय वरदान प्राप्त करना चाहतें है। यह बात सही है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने व साधना करने से देवीय वरदान भी मिलते हैं किंतु वह उच्चस्तरीय सूक्ष्म साधना का फल है| जन्मोंजन्म से तैयारी किये कोई बिरले ही वह साधना कर पाते हैं और आलौकिक शक्तियों को प्राप्त करते हैं| यह साधना न सामान्य है और न कोई सर्वसाधारण के वश की, तथापि असंभव भी नही है|
आज के समाज में हम सब जिस स्थिति में चल रहे है, उसमें जीवन निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही संभव है। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन आदि ऐसे गुण है, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य जीवन कला के विरोधी दुर्गुण है। इनका त्याग करने से जीवन कला को बल प्राप्त होता है। अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला और मानवता का मेरुदण्ड है। इसके अभाव में असुख, अशाँति एवं असंतोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिए अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नही है।     
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समताधिकारी बनाम सत्ताधिकारी


जब तक कोई आदमी सत्ता में नही होता, तब तक ईमानदार होता है क्योंकि तब तक पकड़े जाने का डर होता है। जैसे ही सत्ता में पहुचता है, धीरे-धीरे पकड़े जाने का डर समाप्त हो जाता है। तुम प्रधानमंत्री हो गए, राष्ट्रपति हो गए, अब तुम्हें कौन पकड़ेगा? अब तो तुम कानून की छाती पर बैठ गए, अब तो हर चीज तुम्हारे नीचे हो गयी तो धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसको समझ में आने लगता है कि अब तो सब चीज मेरे हाथ में है, हर सत्ताधिकारी बेईमान व धोखेबाज हो ही जाता है।
तुम हैरान होते हो कि आखिर यह क्यूं होता है? हम अच्छे होने के कारण लोगों को सत्ता में भेजते हैं, चुनाव में वोट देते हैं कि आदमी अच्छा है तो फिर यह हो क्या जाता है? पद पर पहुंचते ही आदमी धीरे-धीरे बदल क्यों जाता है? कब बदल जाता है? कैसे बदल जाता है? इसकी बदलाहट का राज इतना ही है कि वह नैतिक आधार पर अच्छा था क्योंकि बुरे होने में नुकसान था। अच्छा था क्योंकि बुरे होने में भय था। सत्ता में पहुंचकर अब उसे दिखायी पड़ता है कि अब अगर बुरा हो जाऊं तो खूब लाभ है। अब अच्छे होने में ज्यादा लाभ नही है, अब तो अच्छे होने में हानि है। अगर सत्ता में पहुंचकर अच्छा बना रहा तो न धन इकट्ठा कर पाऊंगा, न शक्ति इकट्ठी कर पाऊंगा, न दुश्मनों से बदला ले पाऊंगा, न आगे के लिए अपना इंतजाम कर पाऊंगा, न मेरे बच्चे भी आगे जाकर सत्ता में बैठे रहें, इसकी व्यवस्था जुटा पाऊंगा, तो.... अब अच्छे रहने में कोई लाभ नही है। यानि तब वह लाभ के कारण अच्छा था जबकि अब लोभ के कारण बुरा है क्योंकि लाभ तो सभी का मूल आधार है तो जब लाभ बुरे होने में है तो बुरा हो जाना ही सहज, तर्कयुक्त बात है इसलिए दुनिया में सभी सत्ताधिकारी बुरे हो जाते हैं।
और आदमी सदा से यही सोचता रहा कि मामला क्या हो जाता है? हम भेजते हैं समाजसेवकों को, आखिर में सब बात बदल जाती है। जो समाजसेवा करते थे, गरीबों की सेवा करते थे, ऐसा करते थे, वैसा करते थे, सत्ता में पहुंचते ही सब भूल जाते हैं, शोषण शुरू कर देते हैं। जिनके खिलाफ लड़कर पहुंचे थे, वही करना शुरू कर देते हैं।

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संसार में कुछ भी निर्जिव नही

आध्यात्मिक उद्घाटन का आधार विस्मय है। ये कितना अद्भुत है कि सृष्टि सर्वत्र आश्चर्यजनक वस्तुओं से भरी पडी है लेकिन हम इन्हें अनदेखा कर देते हैं। तभी हममें जड़ता का उदय होने लगता है और साथ में सुस्ती आती है। तमस का कार्य शुरू हो जाता है, निष्क्रियता आने लगती है और अज्ञानता घर कर लेती है। जबकि विस्मय का बोध हममें जागरूकता लाता है। ये समग्र सृष्टि विस्मित होने के लिए आश्चर्यचकित होने के लिए है क्योंकि यह सब एक ही चेतना का आविर्भाव है। वह एक ही चेतना है जो दीये के रूप में, प्रकाश के रूप में जलती है। हमारा मन एक भाषा, दो या कुछ और भाषाओं के लिए योजनाबद्ध किया गया है। हमें लगता है कि इस छोटे से मस्तिष्क में हम सारी समझ, सारा ज्ञान ग्रहण प्राप्त कर सकते हैं। हमें लगता है कि हम सोच-विचार करके परिणाम निकाल सकते हैं, तर्क लगा सकते हैं और उन सभी वस्तुओं को समझ सकते हैं, जिनका यहाँ अस्तित्व है लेकिन यह एहसास कि 'मुझे सब पता है' हमें सुस्ती के कवच में रखे रहता है। 'मुझे पता नही है' से जागरूकता उत्पन्न होती है क्योंकि पता करने के लिए तुम्हें पता लगाना पड़ता है। तुम्हें जागरूक होना पड़ता है।
प्रकृति बार-बार थोड़े बहुत रहस्यों को प्रकट करती है, जिससे जीवन क्या है, चेतना क्या है, ये ब्रह्माण्ड क्या है, मैं कौन हूँ और ये सब क्या है आदि पर आश्चर्यचकित होने, विस्मित होने का मौका मिलता है। तुम एक फूल देखते हो और आश्चर्यचकित होते हो कि ये फूल इतना सुंदर कैसे है? हर वो छोटा-बड़ा आदमी, जो तुम्हारे आस-पास घूमता है। उनमें इस बुद्धिमता को पहचानने की योग्यता है। एक छोटे से बालक को भी देखो उनका अपना एक मन है, वह आँखों से देखता है, उनकी चेतना उनके मुंह के ज़रिये से बोलती है, तुम्हें प्रत्युत्तर देती है या कभी नही भी देती। ये प्राण और जीवन-उर्जा, हरेक पत्थर, हरेक पदार्थ में उपस्थित है। इस ग्रह पर कुछ भी निर्जीव नही है। हम सब जीवन के महासागर में बह रहे हैं। सारा वर्तमान, भूतकाल, भविष्य, इनका समय-मान इस चेतना के दायरे में है। चेतना समय और स्थान से परे है, सब केवल स्पंदन की तरंगें हैं। तो अगर तुम आश्चर्यचकित, विस्मित, अचंभित हो तो बस एक मुस्कान के साथ आंखें बंद कर लो और सोचो।
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धरती पर दीये प्रज्जवलित कर अन्तर्मन को करो उजागर




सदियों से चला आ रहा आत्मिक शान्ति का परंपरावादी दीपावली साधारण त्यौहार ही नही वरन अंत:करण पर छायी अज्ञानता और अपवित्रता की कालिख को मिटाने और ज्ञान ज्योति से ह्रदय को पवित्र व प्रकाशवान बनाने का प्रेरणा स्वरूप है। मान्यतानुसार बुराई को समाप्त कर अच्छाई का प्रकाश फैलाने के लिए धूमधाम से दीपोत्सव मनाया जाता है, जिसका अनुसरण सुसंस्कृत दीपावली के रूप में किया जा रहा है। पौराणिक काल से ही अग्नि को साक्षी के रूप में अपनाया गया है, चाहे वो अग्नि दीपक की हो या हवन यज्ञादि की। अग्नि सदैव पूजने योग्य है क्योंकि वो सर्वदा शिखर पर रहने का संदेश देती है। अग्नि का लक्ष्य ऊपर उठते रहना और सूर्य में विलीन हो जाना माना गया है और यथार्थ में जीवन को आगे से आगे बढ़ते रहना और सूर्य के समान चमकते रहने का प्रतीक है अग्नि पूजन।
वेद-पुराणों में व्याख्यान है, 'अग्निना अग्नि समिध्यते’ अर्थात अग्नि से अग्नि प्रकट होती है। उसी तरह दीये की ज्योत से दूसरा दीया भी जलता है और धरा का अँधियारा मिटा प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है। अग्नि व दीपक से प्रेरणा लेते हुए अपने ह्रदय का आत्मसाक्षात्कार करते हुए आत्मस्वरूप को पहचानकर मन में ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करना चाहिए। अंधेरो में भटकना छोड़कर ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कर स्वयं को उजालों में लाना और जो संगी-साथी पाश्चात्य संस्कृति में भटकते हुए अपने जीवन को कुकृत्य और भटकाव की तरफ ले जा रहे है, उनको भी सुमार्ग का दीपक दिखाकर सुकृत्य करने को प्रेरित करना इस दीपावली पर समाज के प्रेरणादायी स्त्रोतों को पहला कदम है। स्वयं के कत्र्तव्य, स्वयं का जीवन और स्वयं की साधना के अभिभूत होकर स्वयं का जीवन समझना ही मानव का प्रथम धर्म है। जैसे दीपावली को अमावस्या का अँधियारा तभी दूर होता है, जब दीपक स्वयं जलकर प्रकाश करता है वैसे ही अत:मानव जब तक स्वयं को प्रेरित नही करेगा, तब तक अपने अंतर्मन को प्रकाशवान नही कर पायेगा।
वस्तुत: दीपावली पर्व है दीपक के प्रकाश से प्रेरणा लेकर ज्ञान, भक्ति, श्रद्धा और वात्सल्य से ह्रदय को उज्ज्वल व निर्मल बनाने का। जिस तरह घर को साफ़-सुथरा करके सजाया जाता है, उसी तरह अन्तर्मन पर पड़े अज्ञान को मिटाकर एकता के दीपक जलाने और अपने मानवीय मूल्यों को पहचानकर अज्ञान, आलस्य, प्रमाद, अभाव से स्वयं को निकालकर सही राह पर अपने कदम बढ़ाने से होगी स्वयं की 'आत्मिक दीपावली।

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