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Showing posts from March 5, 2017

*दृष्टिकोण बदलने की जरुरत*

*दृष्टिकोण बदलने की जरुरत* दो मित्र थे, अलग - अलग विचारधारा थी । एक राग-रंग का शौकीन तो दूसरा सत्संग का प्रेमी । रविवार को छुट्टी का दिन दोनों साथ-साथ निकले । एक ने कहा - भले आदमी सात दिन में एक दिन छुट्टी का मिलता है, चलो संत आये हुये हैं, उनका व्याख्यान सुनने चलें । दूसरे ने कहा - व्याख्यान सुनकर क्या मिलेगा ? वहाँ तो वही बाते हैं, नाच देखने चलते हैं । दोनों को एक दूसरे की बात जंची नहीं । वे अपने - अपने स्थान पर पहुँच गये । अब दोनों का चिन्तन चलता है । सत्संग में बैठा व्यक्त़ि सोचता है, मेरा दोस्त नाच देख रहा होगा, संगीत का आनंद ले रहा होगा । ऐसा विपरीत सोचकर वह कर्म बंध कर रहा है । ईधर जो नाच देखने गया वह सोचता है - यह संसार स्वयं एक रंगमंच है । कोई धन के लिए तो कोई रुप, कोई तृष्णा के पीछे नाच रहा है । मेरे दोस्त ने ठीक किया वह सत्संग में भगवान की वाणी सुन रहा है । जीवन का सच्चा आनऩ्द, सच़्चा ज्ञान प्राप्त कर रहा है । वह बैठा कहाँ ? नाच - गाने में बैठा, आस़्रव का स्थान है, पर वह निर्जरा कर रहा है और जो संवर के स्थान पर बैठा है वह आस़्रव एवं बंध कर रहा है । आस़्रव और निर्जरा धर्मस